वो सुबह मैं कभी नहीं भूल सकता—11 अगस्त 2024 की वो सुबह।
घड़ी की सुइयाँ जैसे ही 6:00 बजे पर पहुँचीं, मानो समय ने एक नई शुरुआत की चादर ओढ़ ली थी। मॉनसून की ताज़ा ठंडी हवा चेहरे से टकरा रही थी, और धरती जैसे हरियाली में नहाकर मुस्कुरा रही थी।
उस दिन मैं अकेला नहीं था। मेरे साथ थे मेरे सहकर्मी—ऋषिकेश, बिस्वजीत, राजेश—और दो नए चेहरे, दीपक और करण। दीपक तो बिल्कुल नया था इस फील्ड की दुनिया में, पहला फील्ड सर्वे था उसका। हम सब रवाना हुए अजमेर ज़िले के एक छोटे से गाँव—शोकलिया—की ओर।, ये कोई आम यात्रा नहीं थी। हमारा उद्देश्य साफ था, एक अत्यंत दुर्लभ और संकटग्रस्त पक्षी, “लेसर फ्लोरिकन”, जिसे राजस्थान में खरमोर कहा जाता है, उसका सर्वे करना।

लेसर फ्लोरिकन Sypheotides indicus भारत का सबसे छोटा बस्टर्ड प्रजाति का पक्षी है। कभी यह राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र के घास के मैदानों में सामान्य रूप से देखा जाता था, लेकिन अब इसकी स्थिति बेहद चिंताजनक हो गई है। इसकी घटती संख्या को देखते हुए IUCN ने इसे ‘Critically Endangered’, यानी अति संकटग्रस्त श्रेणी में रखा है।
हर साल की तरह, इस बार भी खरमोर की संख्या जानने के लिए हमारा समूह बेस कैंप से शोकलिया और आसपास के क्षेत्रों में सर्वे के लिए निकल गये थे। यह सर्वे बस्टर्ड-फ्लोरिकन संरक्षण कार्यक्रम के तहत, डॉ. सुजीत नरवाड़े, सहायक निदेशक के नेतृत्व में आयोजित किया गया। डॉ. सुजीत नरवाड़े हमें सिर्फ दिशा नहीं दिखाते, वो हमें वजह भी देते हैं कि क्यों ये काम जरूरी है।
इस सर्वे का उदेश्य साफ था— ये जानना कि क्या अभी भी वो पक्षी यहाँ हैं? और अगर हैं, तो कितने संख्या में हैं?
हर साल की तरह, हमने एक बार फिर उम्मीद की डोर पकड़ी और निकल पड़े उन खेतों की ओर, जहाँ प्रत्येक वर्ष मॉनसून में खरमोर निर्भय होकर नृत्य करता हैं।, इस सर्वे में राजस्थान, कर्नाटक और आसाम जैसे विभिन्न राज्यों से बस्टर्ड-फ्लोरिकन संरक्षण कार्यक्रम के समर्पित पक्षी विज्ञानी और फील्ड स्टाफ शामिल थे, सभी का एक ही उद्देश्य था: इस संकटग्रस्त प्रजाति की सध्य स्थिति जानना ।
हमने अपनी बड़ी टीम को सात छोटे-छोटे समूहों में बाँट दिया। हर टीम में तीन से चार सदस्य थे, और हर टीम को एक अलग क्षेत्र सौंपा गया, ताकि कोई भी क्षेत्र छूट न जाए। हमारी टीम को शोकलिया गाँव और उसके आसपास के खेतों व घास के मैदानों में सर्वे की जिम्मेदारी दी गई। उसमे हमारी टीम की संरचना कुछ इस प्रकार थी: एक समूह मे बिस्वजीत, राजेशजी और करण थे, जो वाहन से लाइन ट्रांज़ेक्ट (Line Transect) विधि के माध्यम से पूरे क्षेत्र का अवलोकन कर रहे थे, और दूसरी तरफ, मैं, ऋषिकेश और हमारा नया इंटर्न दीपक — हम पैदल चल रहे थे, Walk Transect, यानी ज़मीन से जुड़कर, हर कदम पे हर हरकत को दर्ज करते हुए। इस सुनियोजित रणनीति से हम व्यापक क्षेत्र को कवर कर पा रहे थे, जिससे सर्वे की सटीकता और प्रभावशीलता दोनों बढ़ती है।
हमारा आज का ग्रिड शोकलिया और उस के आज पास की जगह पर था हमने सर्वे की प्रक्रिया प्रारम्भ की। हमारे सामने छोटे घास मैदान और हरे भरे खेत थे , इस वर्ष मानसून ने भरपूर मेहरबानी की थी। खेतों में हरियाली लहलहा रही थी। यह वही समय होता है जब यह संकटग्रस्त पक्षी भारत के चुनिंदा हिस्सों में प्रजनन के लिए आता है। यह मौसम न केवल धरती को हरा-भरा करता है, बल्कि हमारे मन को भी प्रफुलित करता है कि शायद इस बार हमें खरमोर की संख्या में बढ़ोत्तरी देखने को मिले। दूर-दूर तक फैली मूँग और ज्वर की फसलें, , और वह महत्वपूर्ण संवाद, जो हम स्थानीय किसानों और चरवाहों से कर रहे थे। हमें कई अन्य पक्षीयो की गतिविधियों के संकेत मिलने लगे, और अन्य सूक्ष्म संकेत जिन्हें हमने सावधानीपूर्वक अपने डेटा में दर्ज किया।

हर कदम के साथ हमारे भीतर यह आशा प्रबल होती जा रही थी, कि शायद हम उस दुर्लभ क्षण के साक्षी बनें, जब यह संकटग्रस्त पक्षी एक बार फिर से हमारे सामने उभरे। करीब एक घंटा बीत चुका था, लेकिन अब तक हमें खरमोर की उपस्थिति का कोई प्रमाण नहीं मिला। तब मैंने अपने टीम को सुझाव दिया कि हमें कोई ऊँची जगह तलाशनी चाहिए, जहाँ से हम दूर-दूर तक का मुआयना कर सकें। फिर हम एक ऐसी जगह गये , जहाँ से उस जगह को स्पष्ट रूप से देखा जा सके। हम वहीं रुके और थोड़ी देर के लिए चर्चा करने लगे। बातों-बातों में हम 2022 के सर्वे की यादों में लौट गए। तब मैं और ऋषिकेश साथ थे, और हमने कुल 27 नर और 10 मादा खरमोर देखे थे। लेकिन 2023 के सर्वे में यह संख्या घटकर 15 नर और 5 मादा रह गई थी। यह गिरावट देखकर हम सभी गहराई से चिंतित हो गए थे और अब यही सवाल हमारे मन में था कि क्या इस वर्ष इनकी भी संख्या और कम होगी?
हमारे साथ सर्वे में एक युवा इंटर्न भी थे दीपक नेहरा। उसका अनुभव नया था, अब तक उसने कभी खरमोर को नहीं देखा था। पर जब उसने हमारी बाते सुनी तो उसकी आँखों में एक अलग चमक उभर आई एवम खरमोर को देखने की और उत्सुकता जागने लगी
तो उसने पूछा सर, क्या आज हम देख पाएँगे उसे?
मैंने उसकी आँखों में देख कर मुस्कुराते हुए कहा, “अगर किस्मत साथ दे… तो शायद आज ही।”
फिर हमने दूसरी टीम से संपर्क किया और पूछा, “क्या कहीं कोई गतिविधि दिखी? कोई संकेत?” लेकिन उधर से भी निराशा ही मिली। अब तक उन्हें भी कहीं खरमोर नज़र नहीं आया था।
दिन चढ़ रहा था, लेकिन हमारी उम्मीदें अभी भी वहीं ठहरी थीं एक छलांग, एक आवाज़, एक झलक के इंतज़ार में।
और इसी के साथ हम एक बार फिर से खरमोर को ढूंडने में लग गए। इस आशा में कि शायद कोई हलचल दिखे। तभी,अचानक मेरी नज़र लगभग 800–900 मीटर की दूरी पर एक पक्षी पर पड़ी, जिसकी आकृति खरमोर जैसी लग रही थी। मैंने उत्साहित होकर अपने साथियों को इशारा किया “देखो वहाँ!” सबकी निगाहें उसी दिशा में टिक गईं। लकिन दूरी ज्यादा होने के कारण हम उस को अच्छे से देख नही पा रहे थे।

फिर हम उस दिशा की ओर बढे जहाँ से वह पक्षी दिख रहा था। हमारे मन में उत्सुकता चरम पर थी । क्या यह वही क्षण था जिसका हमें इंतज़ार था?
जैसे-जैसे हम आगे बढ़े, सामने पेड़ों और ढलानों की वजह से दृश्य अस्पष्ट हो गया। लेकिन तभी.. एक जानी-पहचानी आवाज़ गूंज उठी टर्रर्र – टर्रर्र
हम सब एक पल के लिए रुक गए। एक-दूसरे की आँखों में देखा खुशी, आश्चर्य और चमक साफ़ थी। यही वो क्षण था, जिसका हम घंटों से इंतज़ार कर रहे थे। बिना समय गंवाए, हम उस आवाज़ की दिशा में दौड़ पड़े।
कुछ दूरी तय करने के बाद, हम वहा जाकर रुक गये जहा से खरमोर को अच्छे से देख सके फिर हमने उसको अच्छे से देखा जहा वो छलांग लगाता हुआ, शानदार नृत्य,करता हुआ नजर आ रहा था
हम उससे एक सुरक्षित दूरी पर थे, और नज़रें उसी ओर टिकी थीं। मूँग की फसल के बीच, जिसकी ऊँचाई लगभग 30 से 40 सेंटीमीटर तक पहुँच चुकी थी, वहा खरमोर अपने स्वाभाविक संसार में मग्न था। हरे-भरे खेत के उस हिस्से में, वह बिल्कुल स्पष्ट दिखाई दे रहा था। वह बार-बार झुककर ज़मीन से कुछ ढूँढता, शायद खाने की तलाश में, और फिर अचानक एक आश्चर्यजनक छलांग।
जब उसने हवा में छलांग लगाई, उसी समय एक तीव्र “टर्रर्र – टर्रर्र” की आवाज़ हवा को चीरती हुई गूंजी। वह आवाज़ इतनी प्रभावशाली थी कि जैसे उसके साथ सारी चीजे कुछ क्षणों के लिए थम सी गई। लेकिन वह खुद बिल्कुल भी विचलित नहीं था, हमारे वहाँ होने की उसे ज़रा भी भनक नहीं थी। वह लगातार उसी व्यवहार को दोहराता रहा । खाना ढूँढना, छलांग लगाना, और फिर अपनी उपस्थिति की घोषणा करना।

फिर हम सबने खरमोर को मन भर के देखा उस बीच मैंने दीपक की और देखा उसके चेहरे पर एक अलग ही चमक थी |
फिर उसने दूरबीन हटाई, हमारी तरफ देखा और बेहद धीमी, आवाज़ में बोला..
“सर… देखा मैंने… वो… वो सच में लाजवाब है…!”
मैंने उसके कंधे पर हाथ रखा और कहा “अब तुम उन चंद लोगों में शामिल हो, जिन्होंने इस दुर्लभ पक्षी को देखा है।”
सर्वे करते-करते हमें लगभग दो घंटे बीत चुके थे। सूरज अब धीरे-धीरे ऊपर चढ़ रहा था, और ओस से भीगी घास सूखने लगी थी। हम जिस स्थान पर पहुँचे थे, वह स्थानीय लोगों के बीच “भूरी नाड़ी” के नाम से जानी जाती है, एक खुला, शांत और हरियाली से भरा इलाका, जहाँ दूर-दूर तक खेत ही खेत फैले हुए थे।
हम अपने काम में पूरी तन्मयता से लगे हुए थे, दूरबीन से मैदान का निरीक्षण करते, कैमरे और डाटा के ज़रिए संभावित संकेतों को दर्ज करते हुए। इसी दौरान हमने देखा कि दूर से दो स्थानीय किसान हमारी ओर बढ़ रहे हैं। उनके चेहरों पर कौतूहल था, वो हमारे पास आये और बोला क्या साब आज कितने खरमोर देखे फिर मैंने विनम्रता से जवाब दिया आज तो अभी तक एक ही देखा हैं, फिर मैंने उनसे कहा की आईये हम आपको भी दूरबीन से खरमोर दिखाते हैं। दूरबीन से खरमोर देख कर उन्होंने कहा दूरबीन से तो खरमोर काफी पास से दिख रहा हैं ।

फिर हमने उनसे पूछा की ये खेत किसका है, उनके बारे में आप जानते है क्या? तो तुरंत उन्होने हमे उनका नाम रामप्रसाद बताया और संपर्क करवाया। और सर्वे खतम कर के हम उनके घर चले गए।
शोकलिया के एक शांत दोपहर में, मैं अपनी टीम के सहभागियों के साथ रामप्रसाद जी के आवास पर पहुँचा। उस पारंपरिक घर की चौपाल पर हमारी उनसे मुलाक़ात हुई। जैसे ही हम बैठे, उनके चेहरे पर एक आत्मीय मुस्कान उभर आई। बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ तो उनके अनुभवों और यादों की परतें खुलने लगीं। उन्होंने खरमोर के पुराने दर्शन, खेतों के बदलते स्वरूप और मौसम के साथ आए बदलावों को विस्तार से साझा किया। जेसे उन्होंने बताया की पहले खरमोर उन्हें घास के मैदानों में दिखते थे लेकिन अब बदलते स्वरुप के साथ – साथ घास मैदान अब ना के बराबर बचे हैं जिसके कईं मुख्य कारण हैं – घास के मैदान में विदेशी बबुल का होना – तथा अधिक मात्रा में चराई – कई जगहों पर लोगों ने घास के मैदानों में खेती शुरू कर दी है इत्यादि कई कारण जिस कारण घास के मैदान अब ना के बराबर बचे हैं और आज यह ही कारण हैं की खरमोर घास के मैदान छोड़कर खेतो में प्रजनन करना शुरु कर दिया हैं
उनकी बातों में न केवल ज्ञान था, बल्कि उस भूमि से गहरा जुड़ाव भी झलकता था, जहाँ खरमोर निर्भय होकर विचरण करता था। यह वार्तालाप हमारे सर्वेक्षण की दिशा के लिए जितना उपयोगी था, उतना ही भावनात्मक भी,क्योंकि उसमें केवल तथ्य नहीं थे, अनुभव थे, और वह जज़्बा था जो संरक्षण के लिए सबसे ज़रूरी होता है।

हमारा यह सर्वेक्षण केवल आँकड़े जुटाने की एक औपचारिक प्रक्रिया नहीं था, यह एक उम्मीद की तलाश थी। एक प्रयास कि शायद समय रहते हम चेत जाएँ। शायद हम न केवल इस दुर्लभ पक्षी के लिए, बल्कि उसके साथ जुड़े समूचे पारिस्थितिक समुदाय के लिए भी कुछ ठोस कर सकें।
खरमोर सिर्फ एक पक्षी नहीं है, यह उन नाजुक पारिस्थितिकी तंत्रों का प्रतीक है, जिन्हें हम अपनी आँखों के सामने धीरे-धीरे खोते जा रहे हैं। इसके संख्या का कम होना सिर्फ एक प्रजाति के अंत का संकेत नहीं, बल्कि हमारे चरागाहों के सिमटने, जैव विविधता के बिखरने, और पारंपरिक ग्रामीण जीवन के एक अनकहे नुकसान की निशानी है।
बीएनएचएस के सुझाव एव वन विभाग के प्रयासों से अरवर गोयला क्षेत्र में खरमोर संरक्षण क्षेत्र बना। शोकलिया और उसके आसपास के क्षेत्रों में स्थानीय लोगों और किसानों को जोड़कर, टिकाऊ कृषि पद्धतियों के माध्यम से खरमोर के प्रजनन स्थलों को संरक्षित करने का कार्य किया जा रहा है। यह पहल केवल एक पक्षी को बचाने की नहीं, बल्कि एक ऐसे सहजीवी भविष्य की ओर बढ़ने की है जहाँ इंसान और प्रकृति साथ-साथ सांस ले सकें। हमने कई किसानों से बात की, उनके अनुभव सुने, और यह महसूस किया कि समाधान सिर्फ बाहर से नहीं आएगा, वह भीतर से ही उपजेगा। स्थानीय समुदाय की भागीदारी के बिना संरक्षण केवल एक कागज़ी योजना बनकर रह जाएगा।
जब तक यह पक्षी खुले आकाश में अपनी उड़ान भरता रहेगा, वह हमें याद दिलाता रहेगा कि कुछ उड़ानें सिर्फ पक्षियों की नहीं होतीं, वे हमारी अपनी ज़िम्मेदारियों की होती हैं। उन्हें बचाना केवल संरक्षण नहीं, बल्कि अपने अस्तित्व को बचाने जैसा है।
लेख़न: सचिन बिशनोई, सामुदायिक सहभागिता अधिकारी, खरमोर परियोजना अजमेर, बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी
Feature image: Kedar Bhide